बिहार की राजनीति : वादों और वंशवाद की आँच में गठबंधन,विमल देव गुप्ता

बिहार की राजनीति एक बार फिर बेचैन है। महागठबंधन का स्वरूप दिन-ब-दिन अस्थिर दिख रहा है। आरजेडी और कांग्रेस के बीच तकरार किसी रहस्य की तरह नहीं रही, बल्कि अब खुलेआम दिखाई देने लगी है। मुख्यमंत्री पद के चेहरे पर सहमति न बन पाना और सीट बंटवारे की उलझनें यह संकेत दे रही हैं कि विपक्षी एकजुटता केवल पोस्टरों और मंचीय नारों तक सिमट कर रह गई है।
उधर एनडीए ने अपनी चाल तेज़ कर दी है। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की सक्रियता, योजनाओं का उद्घाटन और विकास का राग — यह सब जनता को यह विश्वास दिलाने का प्रयास है कि “बदलाव केवल एनडीए से संभव है”। लेकिन जनता यह भी जानती है कि विकास के वादे कितनी बार चुनावी मौसम के साथ-साथ उड़नछू हो जाते हैं।
इस बार समीकरणों में बीएसपी जैसे दलों की घुसपैठ भी है, जिसने 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर डाली है। इससे वोटों का बिखराव तय है। खासकर दलित और पिछड़े समाज में यह असर विपक्षी खेमे को महँगा पड़ सकता है।
सबसे बड़ा सवाल वंशवाद है। आंकड़े बताते हैं कि बिहार की राजनीति में लगभग 96 परिवारों का वर्चस्व है। नए चेहरे और युवा नेतृत्व अब भी परिवारवाद की दीवार से टकराकर चूर हो रहे हैं। क्या लोकतंत्र का अर्थ केवल “सत्ता का हस्तांतरण” है या “जनता की भागीदारी” भी इसमें कोई मायने रखती है? यह प्रश्न अब तीखा होता जा रहा है।
और सबसे चिंताजनक पहलू है तकनीक का दुरुपयोग। एआई-जनरेटेड वीडियो का हालिया विवाद न केवल प्रचार की मर्यादा को तोड़ता है, बल्कि यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। राजनीति अगर अब झूठी सूचनाओं और तकनीकी छलावे पर टिकेगी तो जनता का विश्वास कैसे बचेगा?
आज बिहार की जनता विकास चाहती है, नौकरियाँ चाहती है, सुरक्षा और अवसर चाहती है। लेकिन सियासत अब भी सीट-बंटवारे, चेहरों की लड़ाई और परिवारों की चौखट से आगे नहीं बढ़ पा रही। यह केवल चुनावी रणनीति की खामियाँ नहीं हैं, यह लोकतांत्रिक चेतना पर चोट है।
बिहार की राजनीति का भविष्य इस बात पर टिका है कि नेता अपने अहंकार और वंशवाद को कितना किनारे रखते हैं और जनता की उम्मीदों को कितनी गंभीरता से गले लगाते हैं। वरना यह उथल-पुथल केवल कुर्सी की बाज़ीगरी रह जाएगी।